राकेश डंडरियाल
मैं वो जोशीमठ हूँ, जो ग्लेशियर द्वारा लाई गई मिट्टी पर बसा था, मैं कभी कत्यूरियों की राजधानी कीर्तिपुर के नाम से जानी जाती थी, तो कभी आदिगुरु शंकराचार्य के मठ के रूप में। कालांतर में धीरे-धीरे मैंने अपनी गोद में मानवता को शरण दी, मेरे ऊपर विकास की भीड़ बढ़ती गई जिसने मेरे लिए विकास के मायने ही बदल दिए, और आज वही विकास मेरे विनाश का कारण बन चुका है। ना भगवान बद्री-विशाल और ना भगवान नृसिंह मेरी सहायता के लिए खड़े हैं। आज मैं बहुत विवश महसूस कर रही हूँ। विकास के धमाकों ने मुझे इस कदर हिला दिया है कि, आज मेरे अंदर और बाहर पानी ही पानी है। किसी को सदियों पुराने मकान छोड़ने के आंसू हैं, तो किसी को पुश्तैनी जमीन को छोड़ने के। मेरे अंदर भी पानी के बुलबुले जो धीरे धीरे बाहर आ रहे थे, मैं कब तक इन्हें रोककर रखती, तो मेरे सब्र का बाँध भी आखिरकार टूट ही गया। मैं पहले से ही लगातार आ रहे छोटे बड़े भूकम्पों से अंदर ही अंदर टूट चुकी थी , मैं क्या करती?
मैं ही चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी की थाती हूं। ऐसा नहीं है कि, मेरे चाहने वालों ने इन धूर्त सरकारों को चेताया न हो, सबसे पहले 1886 में एटकिंस ने हिमालय गजेटियर में भूस्खलन के मलवे पर मेरे (जोशीमठ) के बारे में लिखा था, आगे चलकर मिश्रा समिति ने 1976 में मेरे एक पुराने भूस्खलन के उप-क्षेत्र में इसके स्थान के होने के बारे में लिखा था। विकास के नाम पर विनाश की कहानी गढ़ने वाले प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा याद ही नही रखना चाहते हैं। इन्होनें केदारनाथ आपदा, व उसके बाद धौलीगंगा में आए बाढ़ से भी सबक लेना उचित नहीं समझा।
मुझे बर्बाद करने में ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना, एनटीपीसी की बिजली परियोजना, चारधाम परियोजना, अंधाधुंध पेड़ों की कटाई, धर्म के नाम पर बढ़ती भीड़, बढ़ती हुई अट्टालिकाएं, कंक्रीट के जंगल और बढ़ती जनता का बोझ मैं अब और नही सह सकती। कलयुग से अब विदाई का समय आ गया है, इससे पहले कि, समय निकल जाए, मेरे बच्चों! निकल जाओ मेरे आँचल की छाँव से, शायद अब मुलाकात हो या न हो। धरती तो माँ होती है, लेकिन मैं वो असहाय माँ हूँ, जो अपने बच्चों को छाँव न दे सकी। मैं देख सकती हूँ कि, मेरे बच्चे अपने घरों को किस मज़बूरी और अश्रुपूर्ण विदाई में छोड़ रहे हैं, उनपर तीन तरफ से मार पढ़ रही है। पहला: प्रचंड ठंड की क्रूरता; दूसरा: सरकारी क्रूरता ; और तीसरा मानसिक और भौतिक पीड़ा। मेरे बच्चों शायद अब मुलाकात हो या न हो पर इस साल के अंत में अलकनंदा से मेरी मुलाकात होगी, जिसमें शायद मैं समा भी जाऊं। मेरे मानस पुत्रों, शायद यह वही समय होगा जब भगवान बद्री-विशाल भी इसी दौर से गुज़र रहे होंगे।
जोशीमठ की अभागी माँ